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नज़्म
मिरे वालिद ख़ुदा बख़्शे कहीं आते न जाते थे
सहर से शाम तक अमाँ के आगे दुम हिलाते थे
नश्तर अमरोहवी
नज़्म
मेरी तमाम ज़िंदगी मा'रका-हाए-ख़ैर-ओ-शर
मेरी निगाह-ए-अर्श पर मैं कफ़-ए-ख़ाक-ए-ओ-ख़ुद-निगर
मीर यासीन अली ख़ाँ
नज़्म
अगर दावत हो खाने की तो इस में सोचना क्या है
नहीं गर ये ख़ुदा की देन तो इस के सिवा क्या है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
हैसियत से भी ज़ियादा इज़्ज़त-ओ-शोहरत मिली
रिज़्क़ भी बख़्शा ख़ुदा ने ब-तुफ़ैल-ए-इल्म-ओ-फ़न
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
अगर दावत हो खाने की तो इस में सोचना क्या है
नहीं गर ये ख़ुदा की देन तो इस के सिवा क्या है
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
फ़ातिहा पढ़ने को आया तो बहुत रो रो कर
बख़्श दे उस को ख़ुदा उस ने कहा मेरे बाद
सुग़रा हुमयूँ मिर्ज़ा
नज़्म
सबक़ बस खेलने खाने का जिस को याद होता है
बड़ा हो कर वो लड़का एक दिन उस्ताद होता है